भारतीय संस्कृति में सेक्स (अंतिम भाग)
अनिल अनूप
मस्तिष्क में यह विचार रखे कि यह एक यज्ञ कर्म के समान है जिसमें पत्नी का जनन स्थान ही यज्ञ की वेदी है, उसकी इस वेदी रूपी जनन स्थान के बाह्म लोम यज्ञ में बिछाने वाले मृग चर्म है और जिस प्रकार यज्ञ कर्म में स्त्रुवा द्वारा घृत है, उसी प्रकार मैथुन-कर्म में पुरूष का लिंग ही स्त्रुवा है जिसके द्वारा स्त्री वेदी रूपी जननी स्थान के अन्दर शुक्र की हवि दी जाती है। इन यौन रूपी पवित्र यज्ञ का फल सन्तान के रूप में मनुष्य को प्राप्त होता है, क्योंकि यज्ञ का कोई न कोई फल सन्तान के रूप में मनुष्य को प्राप्त होता है, क्योंकि यज्ञ का कोई न कोई फल अवश्य मिलता है। अतः स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति में सेक्स को कभी वर्जित नहीं माना गया बल्कि उसको एक पवित्र यज्ञ के समान सम्पन्न करने की शिक्षा प्रदान की जाती है। सेक्स अपने इस शुद्व स्वरूप में ही हमारी
संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों को संरक्षित रखते हुए उन्हें पुनजीवित करने कि क्षमता रखता है। वर्तमान में हमारे समाज का एक बहुत छोटा हिस्सा ही उपरोक्त शास्त्रीय सेक्स से परिचित है। शास्त्रीय अर्थात हमारी संस्कृति के पवित्र शास्त्रों में उल्लेखित मैथुन कर्म। लेकिन समाज का एक बहुत बडा भाग संस्कृति के इस स्वरूप से अपरिचित है और साथ ही वह एक प्रकार के मनोरोग से भी ग्रसित है जिसमें वे यह सोचते है कि हमारे सांस्कृतिक मूल्य और संस्कृति सेक्स के प्रति हेय दृष्टि रखते हैं क्योंकि हमारी संस्कृति में सेक्स के जिस विकृत स्वरूप को वर्जित माना गया है उसका तो हमारे यहां संस्कृति के तथाकथित रखवालों ने खुलकर प्रचार प्रासार किया लेकिन भारतीय संस्कृति में सेक्स का जो शास्त्रीय स्वरूप पूज्य मानाा जाता है उसको मौन रखा गया। जिसका भंयकर और विनाशकारी परिणाम यह है कि आज समाज का एक बहुत बडा भाग यौन रोगों से ग्रसित है। कहने का तात्पर्य यह है कि मैथुन विज्ञान के जिस विकृत स्वरूप को प्राचीन ऋृषियों ने हेय और निकृष्ट बताया है उसको तो हमारे यहां सदैव प्रवचनों के जरिए समाज के समक्ष समय समय पर प्रस्तुत किया जाता रहा है लेकिन सेक्स के सुकृत स्वरूप का ज्ञान व्यक्ति के लिए अनिवार्य माना गया, इसका जिक्र बहुत कम किया जाता है। इसका कारण शायद ज्ञान की कमी हो सकता है, क्योंकि भारतीय विचारधारा में ऐसा स्पष्ट रूप से उल्लेखित है कि काम के विषय से घृणा नहीं करनी चाहिए। अरूण के पुत्र विद्वान उद्दालक और नाक मौद्रल्य तथा कुमारहरीत ऋृषियों ने यहां तक कहा है कि ऐसे व्यक्ति जो निरिन्दि्रय , सुकृतहीन, मैथुन-विज्ञान से अपरिचत होकर भी मैथुन कर्म में आसक्त होते है, उनकी परलोक में दुर्गति होती है। स्पष्ट है कि यौन के विकृत स्वरूप का अनुसरण करना पाप का सूचक है, लेकिन इसके शास्त्रीय स्वरूप से अपरिचित होना इससे भी बडा पाप है, क्योंकि जो सुकृत सेक्स से अपरिचित है वही विकृत सेक्स का अनुसरण करता है । इसलिए भारतीय दृष्टि से सेक्स अपने शास्त्रीय स्वरूप मे एक यज्ञ कर्म के समान पवित्र कि्रया है लेकिन पति यदि अपनी पत्नी को एक यज्ञ के समान नहीं समझता उसे केवल भोग्य वस्तु रूप जानकर उसका उपभोग करता है तो यह अवश्य ही अपनी पत्नी का यौन शोषण है जो अनैतिकता है शायद इसीलिए बर्नाड शॉ जैसे विचारकों ने शादी को जीवन पर्यन्तु कानून सम्मत वेश्यावृति की संज्ञा दी है क्योंकि वेश्यालय में पुरूष एक रात के लिए किसी स्त्री से संभोग का अधिकार खरीदता है लेकिन अपनी धर्म पत्नी से यह हम वह आजीवन के लिए एक साथ खरीद लेता है। पत्नी को धर्म पत्नी तो कहे लेकिन यदि धर्मानुसार यौन कर्म न करें तो यह पाप है । -समाप्त
मस्तिष्क में यह विचार रखे कि यह एक यज्ञ कर्म के समान है जिसमें पत्नी का जनन स्थान ही यज्ञ की वेदी है, उसकी इस वेदी रूपी जनन स्थान के बाह्म लोम यज्ञ में बिछाने वाले मृग चर्म है और जिस प्रकार यज्ञ कर्म में स्त्रुवा द्वारा घृत है, उसी प्रकार मैथुन-कर्म में पुरूष का लिंग ही स्त्रुवा है जिसके द्वारा स्त्री वेदी रूपी जननी स्थान के अन्दर शुक्र की हवि दी जाती है। इन यौन रूपी पवित्र यज्ञ का फल सन्तान के रूप में मनुष्य को प्राप्त होता है, क्योंकि यज्ञ का कोई न कोई फल सन्तान के रूप में मनुष्य को प्राप्त होता है, क्योंकि यज्ञ का कोई न कोई फल अवश्य मिलता है। अतः स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति में सेक्स को कभी वर्जित नहीं माना गया बल्कि उसको एक पवित्र यज्ञ के समान सम्पन्न करने की शिक्षा प्रदान की जाती है। सेक्स अपने इस शुद्व स्वरूप में ही हमारी
संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों को संरक्षित रखते हुए उन्हें पुनजीवित करने कि क्षमता रखता है। वर्तमान में हमारे समाज का एक बहुत छोटा हिस्सा ही उपरोक्त शास्त्रीय सेक्स से परिचित है। शास्त्रीय अर्थात हमारी संस्कृति के पवित्र शास्त्रों में उल्लेखित मैथुन कर्म। लेकिन समाज का एक बहुत बडा भाग संस्कृति के इस स्वरूप से अपरिचित है और साथ ही वह एक प्रकार के मनोरोग से भी ग्रसित है जिसमें वे यह सोचते है कि हमारे सांस्कृतिक मूल्य और संस्कृति सेक्स के प्रति हेय दृष्टि रखते हैं क्योंकि हमारी संस्कृति में सेक्स के जिस विकृत स्वरूप को वर्जित माना गया है उसका तो हमारे यहां संस्कृति के तथाकथित रखवालों ने खुलकर प्रचार प्रासार किया लेकिन भारतीय संस्कृति में सेक्स का जो शास्त्रीय स्वरूप पूज्य मानाा जाता है उसको मौन रखा गया। जिसका भंयकर और विनाशकारी परिणाम यह है कि आज समाज का एक बहुत बडा भाग यौन रोगों से ग्रसित है। कहने का तात्पर्य यह है कि मैथुन विज्ञान के जिस विकृत स्वरूप को प्राचीन ऋृषियों ने हेय और निकृष्ट बताया है उसको तो हमारे यहां सदैव प्रवचनों के जरिए समाज के समक्ष समय समय पर प्रस्तुत किया जाता रहा है लेकिन सेक्स के सुकृत स्वरूप का ज्ञान व्यक्ति के लिए अनिवार्य माना गया, इसका जिक्र बहुत कम किया जाता है। इसका कारण शायद ज्ञान की कमी हो सकता है, क्योंकि भारतीय विचारधारा में ऐसा स्पष्ट रूप से उल्लेखित है कि काम के विषय से घृणा नहीं करनी चाहिए। अरूण के पुत्र विद्वान उद्दालक और नाक मौद्रल्य तथा कुमारहरीत ऋृषियों ने यहां तक कहा है कि ऐसे व्यक्ति जो निरिन्दि्रय , सुकृतहीन, मैथुन-विज्ञान से अपरिचत होकर भी मैथुन कर्म में आसक्त होते है, उनकी परलोक में दुर्गति होती है। स्पष्ट है कि यौन के विकृत स्वरूप का अनुसरण करना पाप का सूचक है, लेकिन इसके शास्त्रीय स्वरूप से अपरिचित होना इससे भी बडा पाप है, क्योंकि जो सुकृत सेक्स से अपरिचित है वही विकृत सेक्स का अनुसरण करता है । इसलिए भारतीय दृष्टि से सेक्स अपने शास्त्रीय स्वरूप मे एक यज्ञ कर्म के समान पवित्र कि्रया है लेकिन पति यदि अपनी पत्नी को एक यज्ञ के समान नहीं समझता उसे केवल भोग्य वस्तु रूप जानकर उसका उपभोग करता है तो यह अवश्य ही अपनी पत्नी का यौन शोषण है जो अनैतिकता है शायद इसीलिए बर्नाड शॉ जैसे विचारकों ने शादी को जीवन पर्यन्तु कानून सम्मत वेश्यावृति की संज्ञा दी है क्योंकि वेश्यालय में पुरूष एक रात के लिए किसी स्त्री से संभोग का अधिकार खरीदता है लेकिन अपनी धर्म पत्नी से यह हम वह आजीवन के लिए एक साथ खरीद लेता है। पत्नी को धर्म पत्नी तो कहे लेकिन यदि धर्मानुसार यौन कर्म न करें तो यह पाप है । -समाप्त

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