भारतीय संस्कृति में सेक्स -1भाग
अनिल अनूप
भारतीय परम्परा में सेक्स के विषय को लेकर खुली चर्चा करने से परहेज किया जाता रहा है, क्योंकि भारतीय समाज इस पूर्वमान्यता से ग्रसित है कि सेक्स एक ऐसा विषय है जो हमारी संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों को आघात पहुंचाता है।
वस्तुतः भारतीय समाज सेक्स शब्द को ही पाप, अपराध और गंदगी का सूचक मानता है। यदि कोई दुस्साहस करके इस विषय को स्पष्ट करना या समझना चाहता है तो उन दोनो पर ही कामुक और अश्लील और पापी की मोहर लगा दी जाती है, जबकि हकीकत यह है कि सेक्स विषय न तो संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों पर कुठाराघात करता है और न ही समाज की युवा पीढी की दिशा भ्रमित करता है बल्कि सेक्स से संबंधित ज्ञानवर्द्धक विचार-विमर्श और सेक्स शिक्षा हमारे सांस्कृतिक मूल्यों को सुदृढ करने के साथ ही भावी पीढी को नई दिशा प्रदान करते हुए उन्हें अनुचित यौन आचरण करने से रोक सकता है। अतः सेक्स के संबंध में समाज की उक्त पर्वमान्यता पूर्णतया निर्दोष नहीं है, क्योंकि हमारी संस्कृति में यौन व्यहवार को कभी भी अनुचित नहीं ठहराया गया, बल्कि हमारी संस्कृति में यह पूर्ण स्पष्ट है कि व्यक्ति के सर्वागीण विकास में यौन का विशेष महत्त्व है और उसके बिना किसी समग्र व्यक्तित्व की कल्पना निरर्थक साबित होती है। अतः सेक्स शिक्षा हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का हृास करने के बजाय उन्हें पुनजीवित करती है जिसकी हम भौतिक और पाश्चात्य सभयता के अंधानुकरण के प्रयास में भूलते जा रहे है।
सेक्स या कामेच्छा को पश्चिमी सभ्यता ने अतिमहत्त्व दिया है तो हमारी संस्कृति में भी सेक्स पर अनुचित दबाव नही डाला गया । भारतीय संस्कृति में सेक्स को अनुचित माना गया है। यह संस्कृति विश्लेषण का एकपक्षीय निष्कर्ष है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति की यह मान्यता है कि यौन संबंधों को केवल आवेग के शमन या शारीरिक आकर्षण तक सीमित कर देना मानवत्व की अवमानना है। किसी भी प्रकार की वेश्यावृति और बलात्कार अनैतिक है। किसी के आर्थिक हालात ,सामाजिक दीनता या शारीरिक कमजोरी का फायदा उठाकर अपनी यौनेच्छा पूरी करना एक प्रकार का शोषण है जो पशुता और मानसिक विकृति का परिचायक है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति में सेक्स का विस्तृत स्वरूप अस्वीकृत किया जाता है।
पाश्वात्य-सभ्यता जहां सेक्स के पाशविक स्वरूप को ही महत्त्व देते हुए सेक्स को केवल आवेग शमन के जरिए के रूप में जानती हैं वहीं भारतीय विचारधारा की सदैव से ही यह धारणा रही है कि यौन – आचरण केवल दैहिक आवश्यकता पूर्ण करने वाली क्रिया मात्र बनकर न रहे बल्कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का सृजनात्मक विकास भी करें।
पाशविक जीवन और मानव जीवन में मौलिक अन्तर यही है कि पशु जहां सदैव आवेग द्वारा संचालित होते है, वहीं मानव उन आवेगों में भी सौन्दर्यबोध और मूल्यबोध को ढूंढ लेता है, क्योंकि यह सर्जनात्मक सोच ही है जो मनुष्य को जानवर से पृथक करके उसे चेतनाशील मनुष्य होने का सम्मान प्रदान करती है। अतः भारतीय संस्कृति में सेक्स विकृत स्वरूप को अनुचित ठहराने का यह तात्पर्य लगाना कि यौनवृति ही पूर्णतया अनुचित है सर्वथा गलत निष्कर्ष है, क्योंकि भारतीय संस्कृति और दर्शन में सेक्स को एक पृथक मूल्य पृथक मूल्य के रूप में स्वीकार करके यह सिद्व किया गया है कि यहां मानव की काम – वासनाओं की स्वाभाविक वृति को दमित नहीं किया गया बल्कि सेक्स के द्वारा व्यक्ति के व्यवहारिक जीवन मूल्यों की प्राप्ति के साथ साथ पारमार्थिक मूल्य (मोक्ष) की प्राप्ति में भी सेक्स एक सकि्रय सहायक की भूमिका अदा करता... क्रमश:......
भारतीय परम्परा में सेक्स के विषय को लेकर खुली चर्चा करने से परहेज किया जाता रहा है, क्योंकि भारतीय समाज इस पूर्वमान्यता से ग्रसित है कि सेक्स एक ऐसा विषय है जो हमारी संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों को आघात पहुंचाता है।
वस्तुतः भारतीय समाज सेक्स शब्द को ही पाप, अपराध और गंदगी का सूचक मानता है। यदि कोई दुस्साहस करके इस विषय को स्पष्ट करना या समझना चाहता है तो उन दोनो पर ही कामुक और अश्लील और पापी की मोहर लगा दी जाती है, जबकि हकीकत यह है कि सेक्स विषय न तो संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों पर कुठाराघात करता है और न ही समाज की युवा पीढी की दिशा भ्रमित करता है बल्कि सेक्स से संबंधित ज्ञानवर्द्धक विचार-विमर्श और सेक्स शिक्षा हमारे सांस्कृतिक मूल्यों को सुदृढ करने के साथ ही भावी पीढी को नई दिशा प्रदान करते हुए उन्हें अनुचित यौन आचरण करने से रोक सकता है। अतः सेक्स के संबंध में समाज की उक्त पर्वमान्यता पूर्णतया निर्दोष नहीं है, क्योंकि हमारी संस्कृति में यौन व्यहवार को कभी भी अनुचित नहीं ठहराया गया, बल्कि हमारी संस्कृति में यह पूर्ण स्पष्ट है कि व्यक्ति के सर्वागीण विकास में यौन का विशेष महत्त्व है और उसके बिना किसी समग्र व्यक्तित्व की कल्पना निरर्थक साबित होती है। अतः सेक्स शिक्षा हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का हृास करने के बजाय उन्हें पुनजीवित करती है जिसकी हम भौतिक और पाश्चात्य सभयता के अंधानुकरण के प्रयास में भूलते जा रहे है।
सेक्स या कामेच्छा को पश्चिमी सभ्यता ने अतिमहत्त्व दिया है तो हमारी संस्कृति में भी सेक्स पर अनुचित दबाव नही डाला गया । भारतीय संस्कृति में सेक्स को अनुचित माना गया है। यह संस्कृति विश्लेषण का एकपक्षीय निष्कर्ष है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति की यह मान्यता है कि यौन संबंधों को केवल आवेग के शमन या शारीरिक आकर्षण तक सीमित कर देना मानवत्व की अवमानना है। किसी भी प्रकार की वेश्यावृति और बलात्कार अनैतिक है। किसी के आर्थिक हालात ,सामाजिक दीनता या शारीरिक कमजोरी का फायदा उठाकर अपनी यौनेच्छा पूरी करना एक प्रकार का शोषण है जो पशुता और मानसिक विकृति का परिचायक है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति में सेक्स का विस्तृत स्वरूप अस्वीकृत किया जाता है।
पाश्वात्य-सभ्यता जहां सेक्स के पाशविक स्वरूप को ही महत्त्व देते हुए सेक्स को केवल आवेग शमन के जरिए के रूप में जानती हैं वहीं भारतीय विचारधारा की सदैव से ही यह धारणा रही है कि यौन – आचरण केवल दैहिक आवश्यकता पूर्ण करने वाली क्रिया मात्र बनकर न रहे बल्कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का सृजनात्मक विकास भी करें।
पाशविक जीवन और मानव जीवन में मौलिक अन्तर यही है कि पशु जहां सदैव आवेग द्वारा संचालित होते है, वहीं मानव उन आवेगों में भी सौन्दर्यबोध और मूल्यबोध को ढूंढ लेता है, क्योंकि यह सर्जनात्मक सोच ही है जो मनुष्य को जानवर से पृथक करके उसे चेतनाशील मनुष्य होने का सम्मान प्रदान करती है। अतः भारतीय संस्कृति में सेक्स विकृत स्वरूप को अनुचित ठहराने का यह तात्पर्य लगाना कि यौनवृति ही पूर्णतया अनुचित है सर्वथा गलत निष्कर्ष है, क्योंकि भारतीय संस्कृति और दर्शन में सेक्स को एक पृथक मूल्य पृथक मूल्य के रूप में स्वीकार करके यह सिद्व किया गया है कि यहां मानव की काम – वासनाओं की स्वाभाविक वृति को दमित नहीं किया गया बल्कि सेक्स के द्वारा व्यक्ति के व्यवहारिक जीवन मूल्यों की प्राप्ति के साथ साथ पारमार्थिक मूल्य (मोक्ष) की प्राप्ति में भी सेक्स एक सकि्रय सहायक की भूमिका अदा करता... क्रमश:......

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