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बाछडा समाज की देहमण्डी : मंदसौर

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-अनिल अनूप  जिस तरह देश में मंदसौर अफीम उत्पादन तस्करी के लिए मशहूर है उसी तरह नीमच मंदसौर रतलाम के कुछ खास इलाके भी बाछड़ा समाज की देह मंडी के रुप में कुख्यात है। जो वेश्यावृत्ति के दूसरे ठिकानों की तुलना में इस मायनें में अनूठे हैं कि यहां सदियों से लोग अपनी ही बेटियों को इस काम में लगाए हुए हैं। इनके लिए ज्यादा बेटियों का मतलब है ज्यादा ग्राहक! ऐसे में जब आप किसी टैक्सी वाले से नीमच चलने के लिए कहते हैं तो उसके चेहरे में एक प्रश्नवाचक मुस्कुराहट स्वत: तैर आती है। इस यात्रा में अनायास ही ऐसे दृश्य सामने आने लगते हैं, जो आमतौर पर सरेराह दिनदहाड़े कम से कम मप्र में तो कहीं नहीं देखने को मिलते। हां, सिनेमा के रुपहले पर्दे पर जरूर कभी- कभार दिख रहते हैं। पलक झपकते ही मौसम की शर्मिला टैगोर चांदनी बार की तब्बू , चमेली की करीना आंखों के सामने तैरने लगती हैं। महू- नीमच राजमार्ग से गुजरते हुए जैसे ही मंदसौर शहर पीछे छूटता है। सड़क किनारे ही बने कच्चे-पक्के घरों के बाहर अजीब सी चेष्टाएं दिखने लगती हैं। वाहनों विशेषकर ट्रक, कारों को रुकने के इशारे करती अवयस्क, कस्बाई इत्र से महकती लड़किय...

ब्यूटी और मसाज पार्लर की आड़ में देहब्यापार (अंतिम भाग)

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भारतीय समाज की हमेशा से ही यह खासियत रही है कि यहां पुरुषों को महिलाओं से ज्यादा शक्तिशाली और उनसे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होने का सौभाग्य प्राप्त करता खासियत रही है कि यहां पुरुषों को महिलाओं से ज्यादा शक्तिशाली और उनसे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होने का सौभाग्य प्राप्त करता आया है. यूं तो प्रकृति ने पहले से ही महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा शारीरिक रूप से कमजोर बनाया है लेकिन सामाजिक और पारिवारिक क्षेत्र में उन्हें पुरुषों की तुलना में किस कदर कमजोर बना दिया गया है इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि जहां कहीं भी किसी महिला पर अत्याचार होता है उसका कारण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में पुरुष ही होता है. पारिवारिक क्षेत्र में देखें तो विवाह से पहले उसे अपने पिता और भाई के सामने सिर झुका कर रहना पड़ता है और विवाह के पश्चात पति की आज्ञा मानना और ससुरालवालों की सेवा करना ही उसका एकमात्र धर्म रह जाता है. वहीं जब सामाजिक क्षेत्र पर नजर डाली जाए तो हालात इससे भी कहीं ज्यादा कष्टकारी नजर आते हैं. बलात्कार, यौन शोषण, शारीरिक हिंसा, आदि कुछ ऐसे बेहद जघन्य अपराध है जो पुरुष द्वारा महिलाओं के...

ब्यूटी और मसाज पार्लर की आड़ में भटकती पीढी (1)

मसाज पार्लर की राह हमारे युवा वर्ग को कहां तक ले जाएगी इसके बारे में अनुमान लगाना कठिन है. कहीं ये रास्ता उस नर्क का दर्शन कराती है जिसकी कल्पना मात्र से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं और कहीं इस रास्ते पर चलकर कई लोग अपना सबकुछ खो चुके होते हैं. सांस्कृतिक पतन की ओर बढ़ते देश को ऐसी कुवृत्तियां बहुत तेजी से चोट पहुंचा रही हैं. केवल पैसे और क्षणिक सुख के लिए पूरी पीढ़ी की बर्बादी कहां तक उचित है. कोई बेरोजगारी की वजह से अपना राज्य छोड़कर दिल्ली आता है. एक दिन एक दैनिक अखबार में विज्ञापन देख कर मसाज पार्लर में काम के लिए संपर्क करता है. उसे काम भी मिल गया लकेिन पहले ही दिन जब वह काम पर गया, एक अधेड़ महिला का पहनावा और व्यवहार देखकर उसके पांव तले जमीन खिसक गई. मसाज के नाम पर वहां उपस्थित महिला ने उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने की कोशिश की. मना करने पर उसने कहा कि पार्लर से इसी काम के तीन हजार रुपए में बात हुई है. ऐसा न किया तो शिकायत करूंगी. बेचारा काम की तलाश में यहां आया था और काम छोड़कर वापस बेरोजगार हो गया. लोग आज पैसे कमाने के लिए किसी भी हद तक गुजर सकते हैं और ऐसे में वेश्यावृत्ति के द...

भारतीय संस्कृति में सेक्स (अंतिम भाग)

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अनिल अनूप  मस्तिष्क में यह विचार रखे कि यह एक यज्ञ कर्म के समान है जिसमें पत्नी का जनन स्थान ही यज्ञ की वेदी है, उसकी इस वेदी रूपी जनन स्थान के बाह्म लोम यज्ञ में बिछाने वाले मृग चर्म है और जिस प्रकार यज्ञ कर्म में स्त्रुवा द्वारा घृत है, उसी प्रकार मैथुन-कर्म में पुरूष का लिंग ही स्त्रुवा है जिसके द्वारा स्त्री वेदी रूपी जननी स्थान के अन्दर शुक्र की हवि दी जाती है। इन यौन रूपी पवित्र यज्ञ का फल सन्तान के रूप में मनुष्य को प्राप्त होता है, क्योंकि यज्ञ का कोई न कोई फल सन्तान के रूप में मनुष्य को प्राप्त होता है, क्योंकि यज्ञ का कोई न कोई फल अवश्य मिलता है। अतः स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति में सेक्स को कभी वर्जित नहीं माना गया बल्कि उसको एक पवित्र यज्ञ के समान सम्पन्न करने की शिक्षा प्रदान की जाती है। सेक्स अपने इस शुद्व स्वरूप में ही हमारी संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों को संरक्षित रखते हुए उन्हें पुनजीवित करने कि क्षमता रखता है। वर्तमान में हमारे समाज का एक बहुत छोटा हिस्सा ही उपरोक्त शास्त्रीय सेक्स से परिचित है। शास्त्रीय अर्थात हमारी संस्कृति के पवित्र शास्त्रों में उल्ले...

भारतीय संस्कृति में सेक्स (भाग2)

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अनिल अनूप  इस प्रकार स्पष्ट है कि जहां तक सांस्कृतिक मूल्यों का सवाल है तो सेक्स को भी यहां प्रथक मूल्य का सवाल है तो सेक्स को भी यहां प्रथक मूल्य का मान प्राप्त है जिसे मानव जीवन में अनावश्यक मानने के साथ ही परम मूल्य मोक्ष के सहायतार्थ रूप में भी अनिवार्य रूप से आवश्यक है। भारतीय दार्शनिक और सांस्कृतिक मूल्यों में सिद्वान्त पुरूषार्थचतुष्ट के चारों पुरूषार्थो-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में मोक्ष साध्य मूल्य है और धर्म, अर्थ के साथ साथ काम को भी साघन मूल्य के रूप में स्वीकार किया गया है। इस प्रकार भारतीय दार्शनिक दृष्टि से भोग और मोक्ष अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों को ही मानव जीवन के लिए आवश्यक माना गया है। वास्तव में देखा जाय तो भारतीय दार्शनिक विचारधारा में अन्य तीन पुरूषार्थ मानव जीवन के लिए आवश्यक है, लेकिन काम पुरूषार्थ मानव जाति के अस्तित्व के बिना इसके मनुष्य जाति का अस्तित्व ही नहीं रहता और मानव अस्तित्व के बिना जीवन में मानव मूल्यो की कल्पना नहीं की जा सकती है। इसीलिए भारतीय संस्कृति की यह मान्यता है कि पितृ-ऋृण की मुक्ति के लिए काम को मानना आवश्यक है, क्योंकि पितृ- ऋृण...

भारतीय संस्कृति में सेक्स -1भाग

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अनिल अनूप  भारतीय परम्परा में सेक्स के विषय को लेकर खुली चर्चा करने से परहेज किया जाता रहा है, क्योंकि भारतीय समाज इस पूर्वमान्यता से ग्रसित है कि सेक्स एक ऐसा विषय है जो हमारी संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों को आघात पहुंचाता है। वस्तुतः भारतीय समाज सेक्स शब्द को ही पाप, अपराध और गंदगी का सूचक मानता है। यदि कोई दुस्साहस करके इस विषय को स्पष्ट करना या समझना चाहता है तो उन दोनो पर ही कामुक और अश्लील और पापी की मोहर लगा दी जाती है, जबकि हकीकत यह है कि सेक्स विषय न तो संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों पर कुठाराघात करता है और न ही समाज की युवा पीढी की दिशा भ्रमित करता है बल्कि सेक्स से संबंधित ज्ञानवर्द्धक विचार-विमर्श और सेक्स शिक्षा हमारे सांस्कृतिक मूल्यों को सुदृढ करने के साथ ही भावी पीढी को नई दिशा प्रदान करते हुए उन्हें अनुचित यौन आचरण करने से रोक सकता है। अतः सेक्स के संबंध में समाज की उक्त पर्वमान्यता पूर्णतया निर्दोष नहीं है, क्योंकि हमारी संस्कृति में यौन व्यहवार को कभी भी अनुचित नहीं ठहराया गया, बल्कि हमारी संस्कृति में यह पूर्ण स्पष्ट है कि व्यक्ति के सर्वागीण विकास में यौ...

हार गई हिम्मत जीत गया डर....

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-अनिल अनूप  उस दिन हिम्मत और डर की गज़ब लड़ाई हुई थी। सुबह उठ के घर के सारे काम किये, बिना किसी को ये एहसास दिलाए की आज उन्हें जाना था किसी को खुद को समर्पित करने, समाज के बंधन तोड़ने। उनके मन में हज़ार संशय थे… फिर भी दिल की सुनी और अपने मानवीय अधिकार के लिए कदम बढ़ाये। घर और समाज की दहलीज़ लाँघ आई और वहां पहुंची जहाँ उनकी ज़िन्दगी के रंग थे… उनसे मिली जिनके लिए सब छोड़ आई थीं, नज़रें मिलते ही डर हार गया और हिम्मत जीती उस पल। हिम्मत ने उस लंगड़ी बाल विधवा को दोबारा श्रृंगार दिया। एक बार फिर उन्होंने अपने होंठों पे लाली लगाई। रंगों को पहना। चांदी की चूड़ियां काँच में बदल गई थीं। पैरों में पायल, मांग में सिन्दूर, माथे पे बिंदिया, हज़ार अरमान लिए गेहुई रंग की अपाहिज़ बाल विधवा फिर दुल्हन सी सजी थी। दोनों ने रिक्शा किया और चल पड़े कानून से मान्यता लेने कचहरी… कोर्ट मैरिज करने। श्रृंगार के समय जो डर चित्त पड़ा था घर से निकलते ही उठ खड़ा हुआ और करने लगा द्वंदयुद्ध हिम्मत से। कोई देख ना ले इस डर से रिक्शे की छत से छाँव करवा ली। घूँघट भी दे दिया था डर ने उस ब्राह्मण निरीह को। धड़कने भूकंप बनी थीं...