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होश संभाला तो खुद को कोठे पर पाया

होश संभाला तो खुद को कोठे पर पाया, मां-बाप ने मुझे बेच दिया था' अनिल अनूप [ पैसों के लिए मां-बाप ने मुझे कोठे पर बिठा दिया. वहां से भागकर रेलवे स्टेशन पहुंची. रोटी से ज्यादा आसानी से वहां नशा मिलता था.] तब मैं पेट से थी. सड़क पर रहती. जरूरत के समय दवा-दारू तो दूर, एक वक्त का खाना जुटाना मुश्किल था. दिनभर भीख मांगती और तब शाम को उन्हीं पैसों से कुछ खरीदकर खाती. रात में रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर सो जाती. मैं अनाथ नहीं. मेरे पति ने भी मुझे नहीं छोड़ा. मेरी कहानी शुरू होती है आरा जिले के एक छोटे से गांव से. मां-बाप ने गरीबी से तंग आकर अपनी ही बेटी को कोठे पर बेच दिया. मैं तीन साल की थी. होश संभला तो आसपास लड़कियां ही लड़कियां दिखीं. सबके चेहरे गाढ़े मेकअप से लिपे-पुते और एकदम बेजान. वो कोठेवालियां थीं. नाचतीं, ग्राहकों को खुश करतीं. मुझे उस माहौल में बहुत डर लगता. मैंने नाच-गाना सीखने से मना कर दिया. पिटाई होने लगी. जितना विरोध करती, उतना पिटती. आखिरकार एक रोज मैं कोठे से निकल भागी. भागकर सीधे अपने मां-बाप के घर पहुंची. बच्ची थी, समझ नहीं सकी कि जिन्होंने बेचा, वो मां-बाप सही, ...

एक वैडिंग डांसर की दासतान

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अनिल अनूप (ये दास्तां है 23 साल की रितिका की. पैसों की तंगी ने उन्हें वेडिंग डांसर बना दिया. रितिका उन सैकड़ों लड़कियों का चेहरा हैं जो बिहार, उत्तरप्रदेश में लौंडिया डांस करती हैं.) गांव में एक रुआबदार घर की शादी में रितिका आई हुई हैं. एक तंग, बंद खिड़की वाले कमरे में वे अपनी साथियों के साथ तैयार हो रही हैं. साथ में कई बैग रखे हुए हैं. इनमें चमकीली-भड़कीली मेकअप किट और झीने-चमकीले कपड़े रखे हैं. लड़कियां साथ में तैयार होते हुए अपने घरों की बात करती हैं. पिछली शादी का अनुभव दोहराती हैं. कैसे शराब के नशे में धुत्त लड़के स्टेज पर चढ़ आए. कैसे किस लड़की की कमर में हाथ डाल लिया! रितिका का तजुर्बा भी इससे अलग नहीं. शादियों में ऐसा होता रहता है. देखनेवाले नशे में रहते हैं. गाना या नाचने वाली ज्यादा पसंद आ जाए तो सीधे ऊपर आ जाते हैं. हाथ पकड़ते हैं. कमर में हाथ डाल लेते हैं. देश के पूर्वी हिस्से में शादियों में नाच-गाने की परंपरा पुरानी है. पहले लड़की वाले जनवासे यानी बारातियों के ठहरने की जगह में नाचने वालों को बुलाया करते. लड़के वाले भी शादी के बाद लौंडिया नाच की 'व्यवस्था' रखते....

काम ने मुझे जीते जी अमर बना दिया

- अनिल अनूप कृष्णा न्यूड मॉडल हैं. बिना कपड़ों के मॉडलिंग करती हैं. या फिर महीने के चंद रोज़ निचले हिस्से में बित्ताभर कपड़े के साथ. दिल्ली यूनिवर्सिटी के लिए पिछले 18 सालों से काम कर रही हैं. जिस समाज में दूध पिलाती मां भी सेक्स ऑब्जेक्ट होती है, वहां इस पेशे के लिए मजबूती नहीं, मजबूरी चाहिए होती है. पढ़ें इस न्यूड मॉडल की दास्तां... बीच मांग की चोटी और माथे पर चमकती सिंदूरी बिंदी वाली ये औरत तेज-तेज कदमों से चलती हुई बस स्टॉप पहुंचती है. सरिता विहार के अपने घर से दिल्ली यूनिवर्सिटी के कला विभाग के पूरे रास्ते खिड़की से बाहर देखती रहती है. पलकें नहीं के बराबर झपकती हैं. सवालों के छोटे-छोटे जवाब देती इस औरत को देखकर उसके पेशे का सहज ही अंदाजा नहीं लग सकता. दरम्यानी उम्र की कृष्णा जब पोट्रेट रूम में बैठती हैं तो उनमें और किसी मूर्ति में कोई खास अंतर नहीं होता. धड़कनों के उठने-गिरने से ही फर्क किया जा सकता है. या फिर कभी-कभार पलकों के झपकने से. कमरे में चारों ओर रंगों की गंध होती है और तेज रौशनी ताकि शरीर की बारीक से बारीक रेखा या उठ-गिर भी नजरों से चूकने न पाए. उन्हें वो दिन बखूबी याद ह...

सिर्फ सेक्स की चाहत

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अनिल अनूप  26 साल का एक लड़का, जिसे लगता था कि वो लड़की है. उसका सपना था कि वो एम. कॉम करके सीए बने, लेकिन जिंदगी उसे वेश्‍यावृत्ति के अंधेरे कोनों में घसीट ले गई. ट्रांसजेंडर सेक्‍स वर्कर जेरी की कहानी .. मैं एक ट्रांसजेंडर सेक्‍स वर्कर हूं. ये है मेरी कहानी. 12 जून, 1992 को आजमगढ़ के एक मध्‍यवर्गीय परिवार में मेरा जन्‍म हुआ. हमारा बड़ा सा संयुक्‍त परिवार था. प्‍यार करने वाली मां और रौब दिखाने वाले पिता. चाचा, ताऊ, बुआ और ढेर सारे भाई-बहन. मैं पैदा हुआ तो सबने यही समझा कि घर में लड़का पैदा हुआ है. मुझे लड़कों की तरह पाला गया, लड़कों जैसे बाल कटवाए, लड़कों जैसे कपड़े पहनाए. बहनों ने भाई मानकर ही राखियां बांधी और मां ने बेटा समझकर हमेशा बेटियों से ज्‍यादा प्‍यार दिया. हमारे घरों में ऐसा ही होता है. बेटा आंखों का तारा होता है और बेटी आंख की किरकिरी. ये रवींद्रनाथ टैगोर का एक नॉवेल भी है. बहुत साल पहले पढ़ा था, जब मैं पहले-पहल दिल्‍ली आया था. सबकुछ ठीक ही चल रहा था कि अचानक एक दिन ऐसा हुआ कि कुछ भी ठीक नहीं रहा. मैं जैसे-जैसे बड़ा हो रहा था, मेरे भीतर एक दूसरी दुनिया जन्‍म ल...

अब के हम बिछड़े तो शायद ख्वाबों में मिलें, जैसे सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

अब के हम बिछड़े तो शायद ख्वाबों में मिलें, जैसे सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

और मैने वहां जाना छोड दिया •••••

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  और मैने वहां जाना छोड दिया •••••• अनिल अनूप बात तब की है, जब मेरी नई-नई शादी हुई थी। जैसा आमतौर पर स्वस्थ रिश्तों में होता है (कम से कम मैं मानता हूं) कि मैंने अपनी नई-नवेली पत्नी से बीते दिनों की तमाम भली-बुरी यादें और आदतें साझा करनी शुरु कर दीं। मेरा अतीत कुछ ऐसा था कि पत्नी के चेहरे पर मुस्कान कम और ताने-उलाहने अधिक दिखते थे। कोठों का ज़िक्र आया तो पत्नी चौंक गई। एक अजनबी, जिसे अब पति का दर्जा मिल चुका था, जिसके साथ जीवन गुजारना था, मजबूरी भी हो सकती है, फिर भी उसे स्वीकार करना था। उसकी आदतों को भी स्वीकार करना था। उसकी बुरी आदतें सुधारने का हर संभव प्रयत्न करना था। ऐसे तमाम निश्चयों-फैसलों के साथ ही नई-नवेली गृहस्थी की गाड़ी रफ्तार पकड़ती है। लिहाजा, कोठों का जिक्र आने पर पत्नी की आंखें फटीं, पूरी कहानी सुनी, और फिर अपनी ज़ुबान खोली। पत्नी की ज़ुबान खुली नहीं कि मेरे माथे पर बल पड़ गया। मैंने तो पूरी सच्चाई से अपना भला-बुरा अतीत बखान किया था। नतीजा ये निकलेगा, मैंने कभी सोचा भी न था। पत्नी की ख्वाहिश सुनकर मेरी तो बोलती बंद हो गई, सन्नाटा छा गया। सोच-विचार के बाद एक दिन पत्न...

सेक्स वर्क की परिभाषा के बारे में हमारी सोच

-अनिल अनूप कहा जाता है कि स्त्री कभी आजाद नहीं हो सकती, प्रकृति ने उसकी रचना ही कुछ इस तरह की है कि वह आजादी का अनुभव करने में हिचकिचाती है। वह चाहे कितनी ही मॉडर्न विचारधारा वाली क्यों ना हो जाए लेकिन पूर्ण स्वतंत्रता का अनुभव उसके स्वभाव लेकिन एक वेश्या पर यह बात लागू नहीं होती। वह ना सिर्फ स्वतंत्र है बल्कि हर तरह के सामाजिक और धार्मिक बंधनों से भी मुक्त है। वेश्यावृत्ति को दुनिया का सबसे प्राचीन पेशा भी कहा जाता है। यूं तो आज भी वैश्विक स्तर पर वेश्यावृत्ति एक व्यवसाय के रूप में प्रचलित है लेकिन भारत में इसका इतिहास ना सिर्फ बहुत पुराना बल्कि काफी हद तक रोचक और उल्लेखनीय भी है। अगर हम भारत के इतिहास पर नजर डालें तो ब्रिटिश शासन काल से भी बहुत पहले वेश्यावृत्ति ने अपनी जड़ें जमानी शुरू कर दी थी। परंतु अंग्रेजी हुकूमत के तले जिस तरह यह पेशा फला-फूला और जिस तरह इस पेशे का स्वरूप पूरी तरह बदल गया, वह बात उल्लेखनीय है। आज के दौर में क्लब और प्राइवेट महफिलों में डांस करने वाली लड़कियों को बार गर्ल्स कहा जाता है लेकिन 15वीं शताब्दी में ही इन बार गर्ल्स की जड़ें जमने लगी थीं जिन्हें राजमह...