और मैने वहां जाना छोड दिया •••••
और मैने वहां जाना छोड दिया ••••••
अनिल अनूप
बात तब की है, जब मेरी नई-नई शादी हुई थी। जैसा आमतौर पर स्वस्थ रिश्तों में होता है (कम से कम मैं मानता हूं) कि मैंने अपनी नई-नवेली पत्नी से बीते दिनों की तमाम भली-बुरी यादें और आदतें साझा करनी शुरु कर दीं। मेरा अतीत कुछ ऐसा था कि पत्नी के चेहरे पर मुस्कान कम और ताने-उलाहने अधिक दिखते थे। कोठों का ज़िक्र आया तो पत्नी चौंक गई।
एक अजनबी, जिसे अब पति का दर्जा मिल चुका था, जिसके साथ जीवन गुजारना था, मजबूरी भी हो सकती है, फिर भी उसे स्वीकार करना था। उसकी आदतों को भी स्वीकार करना था। उसकी बुरी आदतें सुधारने का हर संभव प्रयत्न करना था। ऐसे तमाम निश्चयों-फैसलों के साथ ही नई-नवेली गृहस्थी की गाड़ी रफ्तार पकड़ती है। लिहाजा, कोठों का जिक्र आने पर पत्नी की आंखें फटीं, पूरी कहानी सुनी, और फिर अपनी ज़ुबान खोली।
पत्नी की ज़ुबान खुली नहीं कि मेरे माथे पर बल पड़ गया। मैंने तो पूरी सच्चाई से अपना भला-बुरा अतीत बखान किया था। नतीजा ये निकलेगा, मैंने कभी सोचा भी न था। पत्नी की ख्वाहिश सुनकर मेरी तो बोलती बंद हो गई, सन्नाटा छा गया।
सोच-विचार के बाद एक दिन पत्नी की इच्छा पूरी करने का मन बना लिया। उस दिन मेरा ऑफ था, यानी अवकाश का दिन, यानी अपनी बुलेट पर पत्नी को पीछे बिठाकर सैर करने का दिन। शाम होते ही बसंती स्टार्ट हुई, पत्नी पीछे बैठी और बाइक हवा से बातें करने लगी।
छुट्टियों के दिन किसी दोस्त-साथी के घर नई-नवेली पत्नी के साथ जाना, उनसे मिलना-मिलाना, या उन्हें अपने घर आमंत्रित करना, हंसी-ठहाके लगाना तो आम बात थी। लेकिन उस दिन मेरी बुलेट उस सफर पर निकली थी, जिस रास्ते पर कभी उसकी सहसवार नहीं गई थी।
वसुंधरा से जी बी रोड पहुंचते-पहुंचते सूर्यदेव नमस्कार कर चुके थे। जी बी रोड, यानि दिल्ली शहर का बदनाम, रेड लाइट एरिया। भले घर की लड़कियां-महिलाएं इस रास्ते का कभी रुख नहीं करती थीं। कम से कम सूरज ढलने के बाद तो नहीं। लेकिन उस दिन एक सभ्य दिख रही महिला को सूर्यास्त के बाद अपनी गलियों में पाकर पूरा जी बी रोड चौंक उठा।
सपाट चेहरे के साथ भावहीन अगस्त्य अरुणाचल ने एक कोठे के सामने अपनी बाइक खड़ी की। और चंद मिनटों में मियां-बीवी उस कोठे की सीढ़ियां चढ़ रहे थे।
ऊपर पहुंचते ही वहां स्तब्धता छा गई। कोठे की मैडम चौंक उठी। अगस्त्य अरुणाचल का उस कोठे पर अक्सर आना-जाना लगा रहता था। पिछले कुछ सालों से आना-जाना कम ज़रूर हुआ था, लेकिन ये कोई उनके कोठे पर आने का वक्त था? और साथ में एक महिला भी, जिसके माथे पर सिंदूर चमक रहा था? कोठे की सारी लड़कियां-महिलाएं भौंचक्की थीं।
कोठे की मैडम और बाकी औरतों से जब मैंने अपनी पत्नी का परिचय कराया, तो वो वहां मानो भूचाल आ गया। मेरी नवविवाहिता की खातिरदारी में कोठे की एक-एक लड़की जुट गई। नीचे (पता नहीं किसे) संदेश भिजवा दिया गया कि उस दिन कोठे पर तब तक एक भी ग्राहक नहीं आएगा, जब तक ये नवविवाहित जोड़ा वहां रहता है। हंसी-ठहाकों के बीच कोल्ड ड्रिंक, नाश्ता और फिर रात का बेहतरीन, स्वादिष्ट खाना भी।
वर्षों पहले मेरे जेहन में एक सवाल पैदा हुआ था। ‘संस्कार’ नामक मूल्य समाज की देन होते हैं या जन्मजात पैदा होते हैं? इस सवाल के जवाब की प्रयोगशाला कोठों से बेहतर कोई जगह नहीं हो सकती थी। इसी सिलसिले में मैंने वहां के बच्चों को पढ़ाना शुरु किया था। नौकरी में आने के बाद पढ़ाने का सिलसिला धीमा पड़ गया था।
मैंने सआदत हसन मंटो की तरह गहराई से कोठे की ज़िंदगी नहीं देखी है। लेकिन जितना देखा है, उससे इतना मानने को मजबूर हूं कि संस्कारों में वाकई फर्क़ होता है।
बच्चों की पढ़ाई और भविष्य के बारे में बातें करनेवाली कोठे की हर महिला सिर्फ एक “मां” थी, जिस्म बेचनेवाली बदनाम औरत नहीं।
अपने बच्चों को लेकर हर मां का सरोकार कुछ वैसा ही था, जैसा कथित सभ्य समाज के मां-बाप के दिल में होता है। और बाप बनने के बाद जिसका अहसास मुझे भी लगातार होता रहा है।
कोठे की हर वेश्या सिर्फ अपना जिस्म बेचती है (चोरी-छिपे नहीं, सीना ठोककर)। पेशे के उसूलों-आदर्शों के साथ कभी समझौता नहीं करती, ना ही अपनी गैरत बेचती है।
उस दिन नवविवाहित जोड़े की आवभगत में कोठेवालियों ने अपने पेशे को विराम दे दिया। आज किसी को फोन करो, तो फोन कट जाता है, फिर एक Pre-saved SMS आता है – “Busy, Will call you later”.
जीवनशाला का प्रयोग थम चुका है। और फिर कभी किसी कोठेवाली को अपनी रोजी-रोटी के ज़रिये को रोकना न पड़े - इस बात का ख्याल रखते हुए उस दिन के बाद से मैंने कोठों का रुख करना छोड़ दिया है।
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