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मन लड़की का, पर शरीर लड़के का ; एक ट्रांसवुमेन का जिंदगीनामा ; एक ऐसा दर्द जो बिरले ही झेल पाते

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बरेली में स्टेज परफॉर्म कर काफी अवॉर्ड-रिवॉर्ड जीतने वाली ट्रांसवुमन सोनिया पांडे इन दिनों रेलवे में जॉब करती हैं। सोनिया की इच्छा अगले साल तक मुंबई आकर अपने डांस का हुनर लोगों के सामने लाने की है। लड़के से लड़की बनीं सोनिया ने ट्रांसजेंडर डे पर अपने इस सफर की बातें- जब बहनों की शादी हुई तो मेरी शादी की बात होने लगी। उस समय भी खुलकर नहीं कह पाई। अगर मना करेंगे, तब पूरे खानदान की इज्जत मिट्‌टी में मिल जाएगी। उस समय इंडीकेशन देती थी कि शादी में दिलचस्पी नहीं है, लेकिन उन्हें समझ में नहीं आया। मेरी शादी हुई, पर शारीरिक संबंध नहीं बना, क्योंकि मेरे अंदर ऐसी कोई फीलिंग ही नहीं थी। बात बढ़ी तो घरवाले पूछने लगे। मैंने बताया कि मेरे अंदर लड़की वाली फीलिंग है। यह सुनकर घर में बहुत बवंडर मचा। जहां शादी हुई थी, उन्होंने भी बहुत उल्टा-सीधा सुनाया। आखिरकार एक साल में तलाक हो गया। छोटी थी तो लड़कियों के कपड़े पहनने का बहुत मन करता था। मां मुझे फ्रॉक पहनाती थी, तब बड़ी खुश होती थी। मां से कहती थी कि मेरे कपड़े मत बदलना, मुझे यही पहनना है। 12-13 साल की हुई, तब समझ आया कि मेरा जन्म गलत शरीर में हो गया है। ...

स्त्री की भावना को समझना आवश्यक है

  अनिल अनूप भारतीय स्त्री की अवधारणा में सिर्फ ‘बेचारी’ और ‘विचारहीन’ नारी का महिमामंडन किया गया, जो सिर्फ अनुगमन और अनुसरण करे। वह कभी प्रश्न न करे और उसकी अपनी कोई सोच या फिर इच्छा न हो। उसका कोई व्यक्तित्व न हो। घरों में सुबह से रात देर तक काम करती स्त्रियां, पूरे परिवार का भार लिए सबसे पहले उठ कर देर रात सो कर, सबके काम करके भी निरुपाय होती हैं। वे बिना पगार के, बिना किसी ‘अवकाश’ के, बिना शिकायत के ताउम्र काम करती हैं। लेकिन उसका श्रेय उन्हें कभी नहीं दिया जाता। ये सब उनका कर्तव्य है। मगर अधिकार पर कभी बात नहीं होती। स्त्री के सम्मान, समानता, इच्छा, आकांक्षा, महत्त्वाकांक्षा- ये सब कुछ नहीं होता। इसलिए हमारे घरों में शिक्षित, स्वावलंबी, दक्ष या फिर संगीत, रंगमंच, गायन, साहित्य में प्रतिभावान स्त्रियों का हमारे घर ‘कत्ल’ कर देते हैं। शादी के बाद सब समाप्त। आज हमारे घरों में युवा लड़के पढ़ाई और नौकरी के लिए विदेश जाने को उत्सुक हैं और जा भी रहे हैं। वहां धीरे-धीरे उनका पश्चिमीकरण हो जाता है। वे वहां से सुख-सुविधा की चीजें भेज कर समझते हैं कि मां-बाप के प्रति उनका कर्तव्य पूरा हो ग...

भारत में 68 प्रतिशत लड़कियों को रोजगार के झांसे में फंसाकर वेश्यालयों तक पहुंचाया जाता है

  अनिल अनूप एक बांग्लादेश की महिला के साथ विश्वासघात हुआ और उसके ही सहकर्मी ने इसे सिर्फ पचास हजार रुपये में एक नेपाली औरत को बेच दिया। बांग्लादेश की एक गारमेंट फैक्ट्री में 9000 रुपये महीने पर नौकरी करने वाली तलाकशुदा महिला शबाना ( बदला हुआ नाम) को उनके ही एक सहकर्मी ने इंडिया में अच्छी नौकरी का लालच दिया, उस सहकर्मी पर भरोसा कर वो बिना अपने मां-बाप को बताये ही दलाल के माध्यम से मुंबई पहुंच गई, लेकिन वहां पर उसके साथ विश्वासघात हुआ और उसके ही सहकर्मी ने इसे सिर्फ पचास हजार रुपये में एक नेपाली औरत को बेच दिया, जो एक वेश्यालय चलाती थी। फिर शबाना को ना चाहते हुए भी देह-व्यापार करना पड़ा। मुंबई से बेंगलुरु फिर अलग-अलग शहरों में देह-व्यापार के अड्डों से होती हुई, अलग-अलग लोगों के चंगुल में फंसने के बाद आखिर में उनका ठिकाना बना पुणे का रेड लाइट इलाका। वहीं से हाल ही में पुणे पुलिस ने उन्हें छुड़ाया और एक एनजीओ के सुपुर्द कर दिया, इस संस्था के लोगों ने ही मुंबई में बांग्लादेशी उच्चायोग से जुड़े ऑफिस से संपर्क किया और शबाना के घर वालों का नाम ठिकाना बताया। जांच-पड़ताल के बाद उन्हें उनके द...

पतिता, अभिशाप या वरदान.. ..: वृत्ति भी और प्रवृत्ति भी है वेश्यावृत्ति

पतिता, अभिशाप या वरदान.. ..: वृत्ति भी और प्रवृत्ति भी है वेश्यावृत्ति : अनिल अनूप  भारत में वैश्या वृत्ति भी है और प्रवृत्ति भी यहाँ दो प्रकार का देह व्यापार हो रहा है एक तो दहेज़ के नाम पर देह व्यापार जिसमें पु...

रंडीबाजी क्यों करती हो?

अनिल अनूप  कपड़े सँभालते हुये उसने दिन के अपने अंतिम ग्राहक से पूछा - साहेब! अपनी औलाद के बारे में कुछ बताओ। ग्राहक को अचरज हुआ। वह बैठ गया। 'तुमने क्यों पूछा?' 'बस ऐसे ही। अब्बू की याद आ गई।.... हरामी! तुम्हारी छुअन वैसी ही लगी मुझे। कहाँ थे अब तक?' नीमजाड़ा था लेकिन वह फिर से पसीने पसीने हो गया। उसमें इतनी अक्ल नहीं थी कि थोड़ी देर पहले के पसीने से इस पसीने का फर्क कर पाता। बहुत ही कमजोर आवाज़ में उसने पूछा - गाली देनी ज़रूरी थी? 'साहेब! मेरे ग़म में अब्बू जरूर चल बसे होंगे...बिना गाली के पूछ नहीं पाती। ... आप ने बताया नहीं?' 'बेटी है एक।' 'क्या उमर होगी?' 'बारह ... क्यों?' उसने नाक सुड़की और मुँह दूसरी ओर कर लिया - रंडीबाजी क्यों करते हो? एक बेटी के बाप हो... उसका चेहरा लाल हो गया। वह चिल्लाया - औकात में रहो! हालाँकि भीतर कुछ जल उठा था जिसे उसने बची हुई दारू को गटक बुझाने की कोशिश की। 'हमारी औकात तो आप से है जान! ...बुरा मत मानो। चार बरस हो गये, बारह की ही थी तो यहाँ उठा लाई गई थी।... तुम्हारी जोरू ....' उसने बात अधूरी छोड़ द...

वृत्ति भी और प्रवृत्ति भी है वेश्यावृत्ति

अनिल अनूप  भारत में वैश्या वृत्ति भी है और प्रवृत्ति भी यहाँ दो प्रकार का देह व्यापार हो रहा है एक तो दहेज़ के नाम पर देह व्यापार जिसमें पुरुष वेश्याएं अपनी देह बेच रही हैं और दूसरे प्रकार का देह व्यापार कि जिसमें नारी देह सामान की तरह खरीदने का अपमान है। पहले पुरुष वेश्याओं की बात हैं .---- दहेज़ निश्चय ही "देह व्यापार " है और दहेज़ ले कर शादी करनेवाले दूल्हे / पति "पुरुष वैश्या". दहेज़ वैश्यावृत्ति है और दहेज़ की शादी से उत्पन्न संताने वैश्या संतति. याद रहे वैश्या की संताने कभी क्रांति नहीं करती तबले सारंगी ही बजाती हैं .लेकिन ताली दोनों हाथ से बज रही है. जब तक सपनो के राजकुमार कार पर आएंगे पैदल या साइकिल पर नहीं तब तक दहेज़ विनिमय होगा ही . जबतक लड़कीवाले लड़के के बाप के बंगले कार पर नज़र रखेंगे तब तक लड़केवाले भी लड़कीवालों के धन पर नज़र डालेगे ही. इस तरह की वैश्यावृत्ति से आक्रान्त समाज में अब लडकीयाँ अपने थके हुए माँ -बाप की गाढ़ी कमाई पुरुष देह को अपने लिए खरीदने के लिए खर्च करने को मौन /मुखर स्वीकृति देती हैं ...यदि स्वीकृति नहीं भी हो तो विरोध तो नहीं ही करती ...

इज्जत के लिए घर में बैठ सकती पेट के लिए नहीं•••••

अनिल अनूप  मेरी जैसी कई औरतों को अपना शरीर बार-बार बेचना पड़ता है।’’ एक औरत की जुबान से पहली बार ऐसा सुन कर मैं झिझक गया। सपना ने बेझिझक आगे कहा, ‘‘पेट के लिए करना पड़ता है। इज्जत के लिए घर में बैठ सकती हूं। लेकिन…’’ इसके बाद वह चुपचाप एक गली में गयी और गुम हो गयी। देश के कोने-कोने से हजारों मज़दूर सपनों के शहर मुंबई आते हैं। लेकिन उनके संघर्ष का सफर जारी रहता है। इनमें से ज्यादातर मज़दूर असंगठित क्षेत्र से होते हैं। सुबह-सुबह शहर के नाकों पर मज़दूर औरतें भी बड़ी संख्या दिखाई देती हैं। इनमें से कइयों को काम नहीं मिलता। इसलिए कइयों को ‘सपना’ बनना पड़ता है। तो क्या ‘‘पलायन’’ का यह रास्ता ‘‘बेकारी’’ से होते हुए ‘‘देह-व्यापार’’ को जाता है? शहर के उत्तरी तरफ, संजय गांधी नेशनल पार्क के पास दिहाड़ी मज़दूरों की बस्ती है। यहां के परिवार स्थायी घर, भोजन, पीने लायक पानी और शिक्षा के लिए जूझ रहे हैं। लेकिन विकास योजनाओं की हवाएं यहां से होकर नहीं गुजरतीं। इन्होंने अपनी मेहनत से कई आकाश चूमती इमारतें बनायी हैं। ख़ास तौर से नवी मुंबई की तरक्की के लिए कम अवधि के ठेकों पर अंगूठा लगाया है। इन्ह...